हो भाषा को बोलने वाले साधारणता हो समुदाय के सदस्य ही होते हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति मे हो भाषा की पहुंच हो समुदाय के बाहर तक हो गई है। हो भाषा को लिपि के रुप में प्रस्तुत करने वाली लिपि को वारड.-चिति लिपि कहते हैं।
वारड.-चिति जिसका अर्थ अमरत्त्व-विशाल शक्ति से है। संभवता हो भाषा का आंरभ लुकु बाबु और लुकु मई के काल से हुआ है। हो भाषा की वारड.-चिति लिपि को पहली बार देवां तुरी के द्वारा रचना किया गया। वर्तमान समय में ओत कोल लाको बोदरा जी ने वर्षो से भूले-बिसरे, बिखरे इस लिपि को पुनः अनुसंधान कर खोज निकाला। हो भाषा मे संभवता पहली देवां तुरी के द्वारा लिखित “अयुर्वेद पुस्तिका” रही है। वारड.-चिति मूलताः शरीर के निर्माण में स्थापित अवयव को ही कहा गया। वारड.-चिति में मूल अक्षर सहित 32 वर्ण हैं। जो छोटे और बड़े अक्षर के रुप में प्रयोग होते हैं। वारड.-चिति को बाएं से दाएं, दाएं से बाएं, ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर और संकेतिक के रुप में भी लिखा-पढ़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह लिपि मनुष्य के सृष्टी के साथ ही बनी है और इसी लिपि से दुनिया की अन्य लिपियों का निर्माण हुआ।
हाल के वर्षो में हो-भाषा वारड.-चिति पर ढेर सारा काम हुआ है। बोदरा जी के द्वारा हो समुदाय की अनुपम भेंट के तौर पर ढेर सारे पुस्तकों की रचना कर प्रदान किया। उनके समकालीन स्वर्गीय सतीश कुमार कोड़ा जी और स्वर्गीय कानुराम देवगम जी के नेतृत्व मे ‘हो’
भाषा पर अनेक कार्य हुए। देश-विदेश के लेखको और कवियों के साथ-साथ वर्तमान समय मे
‘हो’ भाषा को सम्मान जनक स्थिति में लाया जा सका है। झारखण्ड राज्य में ‘हो’ भाषा को नौकरियों के अवसर के तौर पर सरकारी मन्यता दी गई। पड़ोस राज्य उड़ीसा में भी इस प्रकार के कार्यो का आरंभ किया गया है। ‘हो’ भाषा की पढ़ाई प्रथामिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालयों के स्तर तक किया जा रहा है।
गैर सरकारी तौर पर हो भाषा को बढ़ावा देने में TATA STEEL के CSR विभाग द्वारा भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु नियमित केन्द्रों को चलाया जाता है।